आज भी एक्टर अजीत को सभी लॉयन के ही नाम से जानते हैं, पढ़ें सारा शहर मुझे…

हाइलाइट्स

एक्ट्रा से शुरु कर तमाम मशहूर हिरोइनों संग लीड रोल किए
राजेंद्र कुमार की सलाह पर विलेन बने
और विविधता वाली भूमिकाएं करना चाहते थे

सारा शहर मुझे…. इतना भर कहिए और फिल्म प्रेमी कह उठेंगे – लॉयन के नाम से जानता है. बहुत से फिल्मी दर्शक ये कोशिश भी करते हैं कि उसी सर्द आवाज़ में ये डॉयलॉग बोल सकें जैसे अजीत बोलते थे. हालांकि अजीत की तरह “लिक्विड ऑक्सीजन” वाली खतरनाक ठंडेपन के साथ बोल पाना बेहद मुश्किल है. एक्टर अजीत के फिल्मी सफर पर इकबाल रिजवी की किताब- ‘अजीत का सफर- सारा शहर मुझे’… में अजीत के जीवन से जुड़े बहुत से रोचक किस्से लिखे गए हैं. वाणी प्रकाशन की इस किताब में लेखक ने इन किस्सों को उस दौर में अजीत के साथ काम करने वाले और अजीत के बेटे के हवाले से लिखा है.

सैनिक पृष्ठभूमि वाला पठान परिवार
27 जनवरी 1922 को हैदराबाद में पैदा हुए और वारंगल में पढ़ाई करने वाले हामिद अली खॉ के पिता निजाम की नौकरी में थे. अजीत का असली नाम हामिद अली ही था. वारांगल में उसी कॉलेज में पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव भी हामिद से दो साल सीनियर थे. अच्छी कद काठी और उम्दा खिलाड़ी बेटे को हामिद के पिता सेना में नौकरी पर लगाना चाहते थे. लेकिन कॉलेज तक जाते जाते हामिद नाटकों से जुड़ गए. फिल्मों का चस्का भी लग चुका था. मामू की सिनेमा-हॉल में कैंटीन थी. लिहाजा फिल्म देखना आसानी से हो जाता था. इन चक्करों में क्लास में फेल हो गए. पिता की सख्ती की कल्पना कर फेल होने की खबर घर पहुंचने से पहले ही हैदराबाद छोड़ने का फैसला कर लिया. जून 1943 में तब के बंबई जा पहुंचे. उनके पास हैदराबाद के मशहूर शायर शाहिद सिद्धिकी का गीतकार रफीक गजनवी के नाम एक सिफारिशी चिट्ठी भी थी. मुलाकात की, चिट्ठी दी, लेकिन कोई काम नहीं मिला. इस बीच पिता को पता चल गया कि वे मुंबई में हैदराबाद गेस्ट हाउस में रुके हैं. वहां खुद ही पहुंच गए और बेहद नाराजगी जताई की – “पठानों की औलाद भाँड़ों का काम करना चाहता है.” फिर बाप का प्यार औलाद की जिद के आगे नरम पड़ गया और बंबई में फेल होने पर हैदराबाद आकर सेना की नौकरी करने का वायदा लेकर पिता लौट गए.

पहली ही फिल्म में आवाज की तारीफ
मशहूर फिल्मकार मजहर खान ने कद काठी देख 1944 की फिल्म ‘बड़ी बात’ में एक छोटा सा रोल दे दिया. वहां सबसे पहले साउंड रिकॉर्डिस्ट ने उनकी आवाज की खूब तारीफ की और आगे दूसरे विश्वयुद्ध पर बन रही डॉक्यूमेंट्री में आवाज देने का काम भी मिल गया. इससे हामिद का आत्मविश्वास बढ़ा. छोटे मोटे काम के साथ उन्हें उसी फिल्मकार मजहर खान के बेटे को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी मिल गया. इसी दौर में शाहे मिस्र नाम की फिल्म में काम भी किया. 1946 की इस फिल्म को बतौर हीरो उनकी पहली फिल्म कहा जा सकता है. तब तक आजादी के पहले की हिंसा शुरु हो चुकी थी. विभाजन हुआ और तमाम फिल्मकार –कलाकार सरहद के इस पार से उस पास आए गए.

फिल्मकार के. अमरनाथ ने अजीत नाम दिया
बहरहाल, 1949 में चिलमन नाम की एक फिल्म में हामिद ने अपने ही नाम से काम किया. इसी फिल्म को देखने आए डाइरेक्टर के अमरनाथ को हामिद का अभिनय प्रभावित किया और उन्होंने तीन साल के लिए हजार रुपये महीने देकर उनसे कांट्रेक्ट कर लिया. ये बड़ी रकम थी. अमरनाथ ने मधुबाला को हिरोइन लेकर 1950 में बेकसूर फिल्म बनाई. उन्होंने ही हामिद अली खां को नया नाम अजीत दिया. कोई बड़ा सुपरहिट न दे पाने के बाद भी उन्होंने अपने दौर की तमाम नामी हिरोइनों के साथ काम किया. नलिनी जयवंत के साथ फिल्म नास्तिक का एक गीत आज भी बहुत से लोगों की दुबान पर रहता है. कवि प्रदीप का ये गीत अजीत पर बैंकग्राउंड के तौर पर फिल्माया गया था – देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान… हालांकि अजीत खुद फिल्मों में गीत गाना और नाचने को तकलीफदेह काम मानते थे. हालांकि उनपर फिल्माए कई गीत बहुत लोकप्रिय हुए हैं. इस बीच गोइन दी मोंटे से शादी की, जो विफल साबित हुई. लेकिन 1957 की फिल्म नया दौर ने नाम खूब दिलाया. 1960 में फिल्म मुग़ले आज़म में अजीत को जब दुर्जन सिंह का रोल मिला तो उनके अंदाज ने कई संवादों को यादगार बना दिया. जैसे – “शाहजादे, राजपूत जान हारता है वचन नहीं.”

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‘सूरज’ से मिला नया अवतार तो ‘जंजीर’ ने चमका दिया
1960 तक आते आते अजीत को लीड रोल के प्रस्ताव मिलने तकरीबन बंद हो गए थे. कुछ पहले की फिल्में थी. काम कम मिल रहा था. तभी राजेंद्र कुमार ने दक्षिण की एक फिल्म सूरज में खलनायक का काम करने को प्रेरित किया. इसमें अजीत के रोल को खूब सराहा गया लेकिन जंजीर और कालीचरण में अजीत के रोल ने उन्हें बहुत ऊंचाइयां दी. उनकी अदाकारी की आज भी मिसाल दी जाती है. इसके बाद सुभाष घई के निर्देशन में कालीचरण आई. इस फिल्म में भी अजीत के किरदार ने लोगों के दिलों में जगह बना दी.

किताब में लिखा है कि अजीत कहते थे कि उन्हें एक्टर प्राण से ईर्ष्या होती है. क्योंकि प्राण ने खलनायक से हट कर चरित्र भूमिकाएं निभाईं तो उन्हें शहीद, उपकार, जंजीर और डान जैसी फिल्मों में जो भूमिकाएं मिलीं वे जिंदगी की यादगार भूमिकाएं रहीं. जबकि उनके लिए कोई निर्माता ये रिस्क उठाने को तैयार ही नहीं था. ये अलग बात है कि जंजीर के रोल के बाद उन्हें फीस के तौर पर एक फिल्म के छह लाख रुपये मिलने लगे थे. 1995 तक फिल्मकार देवानंद की गैंगस्टर में काम करने वाले इस दिग्गज कलाकार ने 21 अक्टूबर 1998 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया.

किताब – अजीत का सफर- सारा शहर मुझे…
लेखक – इक़बाल रिजवी
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन
मूल्य – रु. 299

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